आज अचानक यूँ खुशबु आई है मेरे गाँव की
देख मेरा यार आम के बाग़ में बैठा हुआ
देखता होगा पुराने बस्ते में छुपाई मेरी निशानी,
और फूट पड़ा हो शायद कहीं बचपन हमारा,
आखों सी उसकी यूँ कि
देख लो वो लौह सम सख्त मेरा यार रोया..
या माई डालती हो आम का अचार छत पे,
चखने को मसाले में नमक शायद है मुझको ढूंढती,
क्या पता गिनती हो घड़ियाँ साथ में इस आस के,
ख़ुद खिलाएगी मुझे जब गाँव लौटूंगा कभी,
बूढी कमर लाठी लिए ख़ुद चुन के एक-एक आम
वो देख लो है आस में बैठी हुई... माई मेरी....
क्या पता अम्मा कहीं
गिनती दिवस है उँगलियों पे
बुन रही हो एक स्वेटर,
चोला ख़ुद की गोद जैसा
गर्म नर्म मेरे लिए...
हो यों भी सकता है कि दीदी,
देखती हो दिवा स्वप्न,
आए हुए कुछ 'रिश्तों' की तस्वीरों के बीच बैठी,
ताने बाने बुन रही हो,
पाला जिसने मात्रु सम
हो मुस्कुराती उम्र के भी इस नवीन पड़ाव पर....
हाँ, आज अचानक यूँ खुशबु आई है मेरे गाँव की....
1 comment:
really dear..its very touchin..!!
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