Thursday, 7 August 2008

मेरे अपने ...

दीदी रे.......
(उत्तर प्रदेश के किसी गाँव में पले बढ़े, शायद इस कविता को ज़्यादा ढंग से समझ सकेंगे..काफ़ी सारे लोक-पर्व एवंशब्दों का प्रयोग है॥ I wrote this one on Rakhi Poornima, 2004)

छुटपन के यादों की साखी,
दो चोटी फीता, कित-कित की साथी,
गुड़िया की शादी, बर्तन मिटटी के,
मिश्री-गुड़ की डलिया वो लाली,
चंपा-बेली सी दीदी रे......

रोज़ उठाकर नहलाती- सी,
पटरी काली कर, खडिया रख,
जूते बांधे, खाना रखती वो,
ले साथ स्कूल तक जाती जो,
सोने पर पंखा झलती-सी,
वो अम्मा-सी दूजी दीदी रे.....

झगडों से मुझको खींचकर,
घर लाती मारते दीदी रे॥
अम्मा-पापा से छुपकर
सिल्ती पॉकेट मेरी कोठरी में,
ख़ुद मार खा पर मुझे बचा,
वो दुपट्टा, वो आँसू वो खामोश सिसक,
वो सिल बट्टा, बर्तन मांजना, चूल्हा फूंकनी सी दीदी रे....

खट्टी इमली, लंगडे की अम्बिया,
पत्ते पर लहसुन की चटनी,
वो चने की फुनगी, कलवे गन्ने के,
कुत्ते के डर ले हाथ में टहनी,
गोदी ले ढोती मेले में,
वो शाम ढले, मुख लाल सूर्य सा,
सरसों क्यारी सी दीदी रे.....

वो रिश्ते बरक्षा तिलकोत्सव,
वो बाजे इमारती झापियों में,
शर्माती की जीजा की बातें सुन,
वो मेहँदी में हाथों में सपने बुन,
वो धर-गिरा, लावा पर्छा,
जो फेरे हुए दिल यूँ छलका,
वो बुन्दे, टीका जोड़ा लाली,
डोली-आंसू सी दीदी रे....

चौथी पर बिरना को न छोड़े,
वो खुशियाँ, दामन, धानी जोड़े,
दिनों में बेटी से बहु तक
दो घर बांधे, जीवन साधे,
भैने की किलकारी-सी दीदी रे...

है दूर बिरन, भौरी-दूध का वो अनछुआ बर्तन,
वो प्यार आशीर्वाद दिल-ही-दिल में,
वो देव मनाती मन्दिर में॥
वो राखी-रोरी, वो नेग माँगना,
वो लिफाफे पर "राखी" लिखकर,
वो गाना के वो जल्दी पहुंचे
और उस चिट्ठी पर आंसू की,
बूंदों सी वो दीदी रे......

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