आज भी पलकों पे सजे,
आंसू मेरे सूखे नही हैं।
तू चूम ले आकर इन्हे,
इस आस में टूटे नही हैं,
ऐ खुदा कर कुछ रहम,
है विश्वास के वो,
झूठे नही हैं।
अब भी तेरे इंतज़ार में,
तकिये पे आँखें मूँद कर,
हर पल बदलते करवटें हम,
तनहा रात भर सोते नही हैं।
उसकी एक हँसी के लिए मीत,
अपनी ज़िन्दगी हमने बदल दी,
और वो भी अपनी "खुशी" संग,
मेरे मुखातिब होते नही हैं।
कुछ फटता है कलेजे में
कि जब आँखें सनम की,
आ जाती सपने में कभी
और हम सुकून-ऐ-दिल होते नही हैं.
Thursday, 25 September 2008
Thursday, 7 August 2008
एक हताश दिन...
(Written:4th Feb, 2006)
आज एक सपना और दफ़न किया,
एक आरजू की चिता जलाई है,
मुझे पागल मत समझो यारों,
मुझे दुनियादारी आई है॥
वो चाँद को छूता सपना था,
जैसा भी था पर अपना था,
पंखों को नोचा तो चीख पड़ा,
टूटी टांगों पर भी पर ढीठ खड़ा॥
फड-फड करती साँसों पर बस,
एक मज़बूत हथेली जमाई है,
मुझे पागल मत समझो यारों,
मुझे दुनियादारी आई है॥
वो कहते हैं थक गया मीत,
ख़ुद से जो मात यूँ खाई है।
क्या बोलूं उजियारी आखों को,
अपनी जो बस भर आयीं हैं।
सपने मेरे तू आगे चल,
तुझ संग अपनी भी विदाई है,
मुझे पागल मत समझो यारों,
मुझे दुनियादारी आई है!!!!
आज एक सपना और दफ़न किया,
एक आरजू की चिता जलाई है,
मुझे पागल मत समझो यारों,
मुझे दुनियादारी आई है॥
वो चाँद को छूता सपना था,
जैसा भी था पर अपना था,
पंखों को नोचा तो चीख पड़ा,
टूटी टांगों पर भी पर ढीठ खड़ा॥
फड-फड करती साँसों पर बस,
एक मज़बूत हथेली जमाई है,
मुझे पागल मत समझो यारों,
मुझे दुनियादारी आई है॥
वो कहते हैं थक गया मीत,
ख़ुद से जो मात यूँ खाई है।
क्या बोलूं उजियारी आखों को,
अपनी जो बस भर आयीं हैं।
सपने मेरे तू आगे चल,
तुझ संग अपनी भी विदाई है,
मुझे पागल मत समझो यारों,
मुझे दुनियादारी आई है!!!!
कुछ चाहतें ऐसी भी थी...
ग़र धडकनों की ताल को मैं गीत दूँ, संगीत दूँ,
हर ताल में, हर लय में गूंजे तेरी याद और सिर्फ़ तू!!
ग़र चक्षुओं के कटघरे में छुपे इन सपनों को मैं,
इक नाम दूँ, इक आयाम दूँ,
हर स्वप्ना में हर ख्वाब में,
महकी सी तेरी ही खुशबू!!!
ग़र तू कहे जीवन की इन राहों पे कोई साथ हो,
तो मैं कहूँ हर राह में हर मंजिल पर तेरी आरजू...
हर ताल में, हर लय में गूंजे तेरी याद और सिर्फ़ तू!!
ग़र चक्षुओं के कटघरे में छुपे इन सपनों को मैं,
इक नाम दूँ, इक आयाम दूँ,
हर स्वप्ना में हर ख्वाब में,
महकी सी तेरी ही खुशबू!!!
ग़र तू कहे जीवन की इन राहों पे कोई साथ हो,
तो मैं कहूँ हर राह में हर मंजिल पर तेरी आरजू...
मेरे अपने ...
दीदी रे.......
(उत्तर प्रदेश के किसी गाँव में पले बढ़े, शायद इस कविता को ज़्यादा ढंग से समझ सकेंगे..काफ़ी सारे लोक-पर्व एवंशब्दों का प्रयोग है॥ I wrote this one on Rakhi Poornima, 2004)
छुटपन के यादों की साखी,
दो चोटी फीता, कित-कित की साथी,
गुड़िया की शादी, बर्तन मिटटी के,
मिश्री-गुड़ की डलिया वो लाली,
चंपा-बेली सी दीदी रे......
रोज़ उठाकर नहलाती- सी,
पटरी काली कर, खडिया रख,
जूते बांधे, खाना रखती वो,
ले साथ स्कूल तक जाती जो,
सोने पर पंखा झलती-सी,
वो अम्मा-सी दूजी दीदी रे.....
झगडों से मुझको खींचकर,
घर लाती मारते दीदी रे॥
अम्मा-पापा से छुपकर
सिल्ती पॉकेट मेरी कोठरी में,
ख़ुद मार खा पर मुझे बचा,
वो दुपट्टा, वो आँसू वो खामोश सिसक,
वो सिल बट्टा, बर्तन मांजना, चूल्हा फूंकनी सी दीदी रे....
खट्टी इमली, लंगडे की अम्बिया,
पत्ते पर लहसुन की चटनी,
वो चने की फुनगी, कलवे गन्ने के,
कुत्ते के डर ले हाथ में टहनी,
गोदी ले ढोती मेले में,
वो शाम ढले, मुख लाल सूर्य सा,
सरसों क्यारी सी दीदी रे.....
वो रिश्ते बरक्षा तिलकोत्सव,
वो बाजे इमारती झापियों में,
शर्माती की जीजा की बातें सुन,
वो मेहँदी में हाथों में सपने बुन,
वो धर-गिरा, लावा पर्छा,
जो फेरे हुए दिल यूँ छलका,
वो बुन्दे, टीका जोड़ा लाली,
डोली-आंसू सी दीदी रे....
चौथी पर बिरना को न छोड़े,
वो खुशियाँ, दामन, धानी जोड़े,
दिनों में बेटी से बहु तक
दो घर बांधे, जीवन साधे,
भैने की किलकारी-सी दीदी रे...
है दूर बिरन, भौरी-दूध का वो अनछुआ बर्तन,
वो प्यार आशीर्वाद दिल-ही-दिल में,
वो देव मनाती मन्दिर में॥
वो राखी-रोरी, वो नेग माँगना,
वो लिफाफे पर "राखी" लिखकर,
वो गाना के वो जल्दी पहुंचे
और उस चिट्ठी पर आंसू की,
बूंदों सी वो दीदी रे......
(उत्तर प्रदेश के किसी गाँव में पले बढ़े, शायद इस कविता को ज़्यादा ढंग से समझ सकेंगे..काफ़ी सारे लोक-पर्व एवंशब्दों का प्रयोग है॥ I wrote this one on Rakhi Poornima, 2004)
छुटपन के यादों की साखी,
दो चोटी फीता, कित-कित की साथी,
गुड़िया की शादी, बर्तन मिटटी के,
मिश्री-गुड़ की डलिया वो लाली,
चंपा-बेली सी दीदी रे......
रोज़ उठाकर नहलाती- सी,
पटरी काली कर, खडिया रख,
जूते बांधे, खाना रखती वो,
ले साथ स्कूल तक जाती जो,
सोने पर पंखा झलती-सी,
वो अम्मा-सी दूजी दीदी रे.....
झगडों से मुझको खींचकर,
घर लाती मारते दीदी रे॥
अम्मा-पापा से छुपकर
सिल्ती पॉकेट मेरी कोठरी में,
ख़ुद मार खा पर मुझे बचा,
वो दुपट्टा, वो आँसू वो खामोश सिसक,
वो सिल बट्टा, बर्तन मांजना, चूल्हा फूंकनी सी दीदी रे....
खट्टी इमली, लंगडे की अम्बिया,
पत्ते पर लहसुन की चटनी,
वो चने की फुनगी, कलवे गन्ने के,
कुत्ते के डर ले हाथ में टहनी,
गोदी ले ढोती मेले में,
वो शाम ढले, मुख लाल सूर्य सा,
सरसों क्यारी सी दीदी रे.....
वो रिश्ते बरक्षा तिलकोत्सव,
वो बाजे इमारती झापियों में,
शर्माती की जीजा की बातें सुन,
वो मेहँदी में हाथों में सपने बुन,
वो धर-गिरा, लावा पर्छा,
जो फेरे हुए दिल यूँ छलका,
वो बुन्दे, टीका जोड़ा लाली,
डोली-आंसू सी दीदी रे....
चौथी पर बिरना को न छोड़े,
वो खुशियाँ, दामन, धानी जोड़े,
दिनों में बेटी से बहु तक
दो घर बांधे, जीवन साधे,
भैने की किलकारी-सी दीदी रे...
है दूर बिरन, भौरी-दूध का वो अनछुआ बर्तन,
वो प्यार आशीर्वाद दिल-ही-दिल में,
वो देव मनाती मन्दिर में॥
वो राखी-रोरी, वो नेग माँगना,
वो लिफाफे पर "राखी" लिखकर,
वो गाना के वो जल्दी पहुंचे
और उस चिट्ठी पर आंसू की,
बूंदों सी वो दीदी रे......
Wednesday, 6 August 2008
परदेस में एक दिन....
आज अचानक यूँ खुशबु आई है मेरे गाँव की
देख मेरा यार आम के बाग़ में बैठा हुआ
देखता होगा पुराने बस्ते में छुपाई मेरी निशानी,
और फूट पड़ा हो शायद कहीं बचपन हमारा,
आखों सी उसकी यूँ कि
देख लो वो लौह सम सख्त मेरा यार रोया..
या माई डालती हो आम का अचार छत पे,
चखने को मसाले में नमक शायद है मुझको ढूंढती,
क्या पता गिनती हो घड़ियाँ साथ में इस आस के,
ख़ुद खिलाएगी मुझे जब गाँव लौटूंगा कभी,
बूढी कमर लाठी लिए ख़ुद चुन के एक-एक आम
वो देख लो है आस में बैठी हुई... माई मेरी....
क्या पता अम्मा कहीं
गिनती दिवस है उँगलियों पे
बुन रही हो एक स्वेटर,
चोला ख़ुद की गोद जैसा
गर्म नर्म मेरे लिए...
हो यों भी सकता है कि दीदी,
देखती हो दिवा स्वप्न,
आए हुए कुछ 'रिश्तों' की तस्वीरों के बीच बैठी,
ताने बाने बुन रही हो,
पाला जिसने मात्रु सम
हो मुस्कुराती उम्र के भी इस नवीन पड़ाव पर....
हाँ, आज अचानक यूँ खुशबु आई है मेरे गाँव की....
देख मेरा यार आम के बाग़ में बैठा हुआ
देखता होगा पुराने बस्ते में छुपाई मेरी निशानी,
और फूट पड़ा हो शायद कहीं बचपन हमारा,
आखों सी उसकी यूँ कि
देख लो वो लौह सम सख्त मेरा यार रोया..
या माई डालती हो आम का अचार छत पे,
चखने को मसाले में नमक शायद है मुझको ढूंढती,
क्या पता गिनती हो घड़ियाँ साथ में इस आस के,
ख़ुद खिलाएगी मुझे जब गाँव लौटूंगा कभी,
बूढी कमर लाठी लिए ख़ुद चुन के एक-एक आम
वो देख लो है आस में बैठी हुई... माई मेरी....
क्या पता अम्मा कहीं
गिनती दिवस है उँगलियों पे
बुन रही हो एक स्वेटर,
चोला ख़ुद की गोद जैसा
गर्म नर्म मेरे लिए...
हो यों भी सकता है कि दीदी,
देखती हो दिवा स्वप्न,
आए हुए कुछ 'रिश्तों' की तस्वीरों के बीच बैठी,
ताने बाने बुन रही हो,
पाला जिसने मात्रु सम
हो मुस्कुराती उम्र के भी इस नवीन पड़ाव पर....
हाँ, आज अचानक यूँ खुशबु आई है मेरे गाँव की....
कुछ एहसास उठे अचानक यूँ!!
१. तेरे साथ भी जिया था, तेरे बाद भी जीता हूँ,
अब जिंदगी में खास ये है, बिना जिए भी जीता हूँ!!!
२. जिनके एक दीदार पे हमारी १०० मौतें कुर्बान थी,
वो इतने बेक़दर निकले हमें इक बार मरने का हक न दिया!!!
अब जिंदगी में खास ये है, बिना जिए भी जीता हूँ!!!
२. जिनके एक दीदार पे हमारी १०० मौतें कुर्बान थी,
वो इतने बेक़दर निकले हमें इक बार मरने का हक न दिया!!!
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