मैं अपने बचपन के बुढ़ापे को देख रहा हूँ॥
ये गया वो,
वो गया वो,
सोच-सोच बस झेंप रहा हूँ...
मैं... अपने बचपन के बुढ़ापे को देख रहा हूँ॥
दिख रहा है आज भी वह साफ़,
उस प्रथम दिन का पहला उन्माद,
वो यार सारे,
वो स्कूल मेरा,
वह विद्यालय भवन है आता याद॥
वह प्रार्थना कि कतार प्यारी,
वो तितलियाँ, वह फूलों कि क्यारी,
वह मैदान फक्कड़ खेले अब भी,
पर खल्ती कमी उसे मेरी भी भरी॥
वो कागजों के उड़ते जहाज़,
वह नाव भी है पानी पर आज,
पर हाय!! रूठे जा रहे हैं...
क्योंकि बचपन जा रहा है
वो पल भी छूटे जा रहे हैं॥
उस बेवजह मुस्कान को मैं आईने पर ढूंढता हूँ
उस निस्वार्थ मित्र प्रेम को मैं इस जहाँ में ढूंढता हूँ
उन चोरी के खट्टे-मीठे बेरों से अल्हड़ बालपन को
इस शांत गंभीर तरुणाई कि मौजों में डूबा ढूंढता हूँ॥
है उमंग योवन का यह अद्भुत,
हैं मित्र अद्भुत, साथ अद्भुत
फिर भी नन्ही उन्ही उँगलियों का सहारा ढूंढता हूँ...
मेरा बचपन कांप रहा है
अंत अपना भांप रहा है
मैं भी संग मुस्कान के
उन्नीस के बूढ़े बचपन को आन से
सर झुका कर विदा कर
उसका बिछड़ना देख रहा हूँ...
मैं, अपने बचपन के बुढ़ापे को
बस..... देख रहा हूँ!!!
I wrote this at my 20th birthday: the end of my teens when I suddenly realized I am growing up and will never be a carefree teenager again. But boy, I never knew I would miss my 20s so much, now that I am going to touch my 30s in an year.. Guess, this process will continue forever ;);)